कब

अच्छा किया मौत जो मुझे सुला दिया,
वर्ना शब् - ए - तन्हाई की सहर जाने कब होती।
मैं गहराईयों में डूबता चला जाता,
तैर पाने की उम्र जाने कब होती!

ख्वाबों की जन्नत कितनी ख़ूबसूरत होती है,
सचाइयों की जहनुम कितनी बेदर्द।
अरमानो के महल टूटते चले जाते,
मेरे छोटे से घर की मेहराब खड़ी जाने कब होती!

डूबते सूरज में भी लम्बे होते सायों को,
बचाने की ताक़त नहीं होती,
हवा के थपेड़े मुझे झुकाते रहते,
मेरी लौ तेज जाने कब होती!

दिल की आरजुएं हज़ार थीं,
किस किस को दबाकर रखता मैं।
जज्बातों का समंदर उफनता रहता,
यादों की लहरें आनी बंद जाने कब होती!

अच्छा किया मौत जो मुझे सुला दिया,
वर्ना शब् - - तन्हाई की सहर जाने कब होती।

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