जीवन के पचास साल
जीवन के पचास साल बीत जाने पर भी
है लड़कपन मेरा जैसे का तैसा!
नहाते हुए बनाता हूँ साबुन के झाग से दाढ़ी मूँछ बाल
और बन जाता हूँ बूढ़ा बाबा जो था काबुल से आया।
चलाता हूँ गले से आवाज़ निकाल कर मोटर कार ट्रेन और जहाज़
और खुद ही हँसते हुए गिर जाता हूँ ज़मीन पर।
जवान बच्चों से करता हूँ बेसिरपैर की बातें,
कभी तुकबंदी कभी पुराना गाना तो कभी यूँह ही कुछ अजब आवाज़ें।
ख्यालों में अब भी देखता हूँ राजा रानी की कहानी का सुखद अंजाम,
पर कहानी बनाता भी मैं हूँ और राजा भी मैं।
नए नए सपने बुनता हूँ हर रात और कभी डॉक्टर
कभी पुलिस तो कभी बनता हूँ डाकुओं का सरदार।
कंचे, पतंग, पिठू, गिल्ली-डंडा, लूडो और छुपन-छुपाई
ललचाते हैं ज्यूँ खाली पेट को मिठाई की दूकान।
छुप कर खा लेता हूँ अब भी बोर्नविटा या किशमिश
गर न मिले दूध को उबाल कर राबड़ी खाने का मौका।
करता हूँ कोशिश अप्रैल फूल बनाने की घर पर सबको
कभी पट्टी बाँध कर तो कभी रोने की एक्टिंग कर के।
टीवी पर ढूंढता हूँ कार्टून फिल्में या फिर गाने पुराने
वीडियो गेम्स में सुपर मारिओ मिल जाएँ तो फिर क्या बात।
रामलीला और दिवाली का मेला देखने ज़रूर जाता हूँ
छोटी सी तलवार या फिर तीर कमान खरीद कर घर लाता हूँ।
अपनी छोटी छोटी सी कामयाबी पर किसी से पायी शाबाशी
अब भी ले आती हैं सीने में थिरकन और आँखों में गर्व का पानी।
सड़क पर मस्ती से आढ़ा तिरछा चलना, किसी पर हंसना और
साइकल वाले भैया से छेड़छाड़ अब भी करता हूँ हर बार।
जब कोई न देखे तो फिर सरपट दौड़ता हूँ ज्यूँ घोड़े की चाल
और कभी ठन्डे ठन्डे फर्श पर निर्वस्त्र लोट जाता हूँ।
सोचता हूँ कई बार कि करूँ मैं अपनी उम्र का ख़याल और रहूँ संजीदा सबकी तरह
पर न जाने क्यों आज भी मैं वही बालक हूँ जिसके लिए था जीवन सीधा साधा और सभी जन मेरे मित्र।
जीवन के पचास साल बीत जाने पर भी
है लड़कपन मेरा जैसे का तैसा!
है लड़कपन मेरा जैसे का तैसा!
नहाते हुए बनाता हूँ साबुन के झाग से दाढ़ी मूँछ बाल
और बन जाता हूँ बूढ़ा बाबा जो था काबुल से आया।
चलाता हूँ गले से आवाज़ निकाल कर मोटर कार ट्रेन और जहाज़
और खुद ही हँसते हुए गिर जाता हूँ ज़मीन पर।
जवान बच्चों से करता हूँ बेसिरपैर की बातें,
कभी तुकबंदी कभी पुराना गाना तो कभी यूँह ही कुछ अजब आवाज़ें।
ख्यालों में अब भी देखता हूँ राजा रानी की कहानी का सुखद अंजाम,
पर कहानी बनाता भी मैं हूँ और राजा भी मैं।
नए नए सपने बुनता हूँ हर रात और कभी डॉक्टर
कभी पुलिस तो कभी बनता हूँ डाकुओं का सरदार।
कंचे, पतंग, पिठू, गिल्ली-डंडा, लूडो और छुपन-छुपाई
ललचाते हैं ज्यूँ खाली पेट को मिठाई की दूकान।
छुप कर खा लेता हूँ अब भी बोर्नविटा या किशमिश
गर न मिले दूध को उबाल कर राबड़ी खाने का मौका।
करता हूँ कोशिश अप्रैल फूल बनाने की घर पर सबको
कभी पट्टी बाँध कर तो कभी रोने की एक्टिंग कर के।
टीवी पर ढूंढता हूँ कार्टून फिल्में या फिर गाने पुराने
वीडियो गेम्स में सुपर मारिओ मिल जाएँ तो फिर क्या बात।
रामलीला और दिवाली का मेला देखने ज़रूर जाता हूँ
छोटी सी तलवार या फिर तीर कमान खरीद कर घर लाता हूँ।
अपनी छोटी छोटी सी कामयाबी पर किसी से पायी शाबाशी
अब भी ले आती हैं सीने में थिरकन और आँखों में गर्व का पानी।
सड़क पर मस्ती से आढ़ा तिरछा चलना, किसी पर हंसना और
साइकल वाले भैया से छेड़छाड़ अब भी करता हूँ हर बार।
जब कोई न देखे तो फिर सरपट दौड़ता हूँ ज्यूँ घोड़े की चाल
और कभी ठन्डे ठन्डे फर्श पर निर्वस्त्र लोट जाता हूँ।
सोचता हूँ कई बार कि करूँ मैं अपनी उम्र का ख़याल और रहूँ संजीदा सबकी तरह
पर न जाने क्यों आज भी मैं वही बालक हूँ जिसके लिए था जीवन सीधा साधा और सभी जन मेरे मित्र।
जीवन के पचास साल बीत जाने पर भी
है लड़कपन मेरा जैसे का तैसा!
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