अब और तब

 कुछ इस तरह से बदलती है करवट  ज़िन्दगी जैसे चुपके से सर्द मौसम बदल जाये बहार में.
क्या मालूम था हमें हमारी कश्ती भी यूँ टकरा जाएगी लहरों की दीवार से.
कभी सोचा ना  था ऐसा होगा के आवारगी उन दिनों की बनेगी दीवानगी इन दिनों की.
और तस्सुवर में होगा उनका कब्ज़ा जिन्हें हम लाते भी न थे ख्वाबों में.
कोई शख्स क्यूँ आता है ज़िन्दगी में ऐसे लौट कर, आती है साहिल पे लहरें ज्यूँ 
क्या इरादा है उस खुदा का हमारी इन मुलाकातों में.
सुखा पेड एक बार फिर से हरा हो जाये बिन बरसात ऐसे
सिर्फ पढ़ते थे अलिफ़ लैला की किताबों में.
फर्क है----------
फर्क है लेकिन उन  दिनों की मुहब्बत और आज की इस चाहत में 
तब सिर्फ चाह थी उसे पाने की और अपना बना कर रखने की.
आज सिर्फ यह चाह है की वोह खुश रहे, आबाद रहे.
तब जलन सी होती थी अपने रकीब से
अब वही रकीब कुछ अपना सा लगने लगा है.
ताजुब होता है मुझे अपने ही दिल की बेवफाई पे
जो अपना न हुआ उसे गैरों का बना देखने पर भी क्यूँकर सुकून है इस में. 
लोग कहते हैं हम अब समझदार हो गए हैं.
सही गलत का फैसला करने का हक रखते हैं.
पर मुहब्बत में क्या सही क्या गलत- क्या मेरा क्या तेरा
कौन सी रस्में कौन से रिश्ते - क्या उम्र क्या ज़माना.
ऐसी  समझदारियों से तो बहुत बेहतर थी हमारी नादानियाँ.
क्यूँ न कर लूँ मैं वो इजहारे इश्क उन से एक बार अब
जिसकी तमन्ना लिए हम जुदा हुए थे ख्यालों में.
वक़्त ने जो ली यूँ करवट ज़िन्दगी ने दिया दिल वो करार जैसे
सारी खुदाई छोड़ कर खुदा ने बैठा लिया हो अपने आगोश में.

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