अक्स

कभी कभी इन सफ़ेद दीवारों में एक अक्स उभरता है
जो बुलाता है मुझे, प्यार से देखता है मुझे !
बाहर चाँदनी में उसके लहराते केश
गालों को सहलाते हैं मेरे!
मैं हाथ बढ़ाता हूँ और
उसे छूने की कोशिश में अपने ही बदन को छु जाता हूँ!
क्या गलत करता हूँ मैं ?
वह मेरा ही तो अक्स है,
मैं उसका ही तो दूसरा रूप हूँ !
एक दूसरे में समाये हुए हम दोनों क्या अलग हुए हैं कभी?
क्या आत्मा से सृष्टि, सृष्टि से जीवन और जीवन से दर्शन निकलना संभव है ?
फासलों ने मुझे कभी हतोत्साहित नहीं किया,
इन फासलों से प्यार के माने पता चले हैं!
आओ हम इन फासलों को भी ख़तम कर दें,
और बता दें दुनिया को कि  प्यार क्या है !!

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