ज़िन्दगी की किताब के पन्ने सूख कर हुए थे जो ज़र्फ़ भीगी पलकों से गिरा एक कतरा सुर्ख फूलों सा खिला गया ! चाहता हूँ रख दूँ यह पन्ने सामने तुम्हारे नूर ऐ नज़र कि फिर से वोह दिन जीना चाहता हूँ मैं !!
अपने दिल की कलम से दर्द की स्याही में डुबो कर बेबसी के कागज़ पे बिखराया था अपनी मजबूरियों का फ़साना तुमसे की बेवफाई का सबब और अपनी रुस्वाइयों का ज़िक्र ! ज़माने से परेशान अपनी नाकामयाबियों से झूझते तुमसे दूर तुम्हारी यादों को संभालते कभी हँसते और कभी रोते समेटे थे जिसमे कुछ अलफ़ाज़ कुछ नग्मे और कुछ यूँ ही बिना लिखे सलाम जाने क्यों नहीं मिला तुम्हे वोह खत जो लिखा था हमने !!