तर्क
काठ की पुतलियाँ हैं, पर डोर नहीं है। इचछाँए तो हैं पर, तर्क नहीं है। समाजवाद में समाज को, बाद में लाया जाता है। स्वार्थ को आगे लाने का, वैसे कोई अर्थ नहीं है। मनुष्यता का बैरी जब, स्वयं मनुष्य हो जाये। और खून बेहने लगे, तो इससे बुरा कोई कृत्य नहीं है। लाशों की नींव पर बना साम्राज्य, कोई अर्थ नहीं रखता। यूँ साम्राज्य की भी, कोई आव्यशकता नहीं है। दुहाई देना हक और ज़रूरत क़ी, केवल बहाना है एक। किसी का हक छीनना, हमारी आदत नहीं है। ज़रूरत है अब क़ी सब, झांकें अपने गिरेबान में. किसी का भी दामन, कलंक से खाली नहीं है।